Sunday, November 18, 2012

अब उनसे दूरियों का कोई भी मतलब नहीं रहा...

जो कसमें खा रहे थे यूँ हवा का रुख बदलने की,
वही अब इस सियासत की हवा के साथ बहते हैं।

ज़माने की यहाँ इंसानियत से दुश्मनी क्यों है,
जो दिल के साफ़ होते हैं, वही तो ज़ुल्म सहते हैं।

अज़ब हैं लोग, कपड़ों की तरह रिश्ते बदलते हैं,
इसी ख़ातिर यहाँ रिश्तों के सारे महल ढहते हैं।

जिन्हें आस्तीन के साँपों सा तुमने मुद्दतों पाला,
वो अपने ज़हर से देखो तुम्हारी कथा कहते हैं।

अब उनसे दूरियों का कोई भी मतलब नहीं रहा,
जो सुबहो-शाम यादें बन के मेरे दिल में रहते हैं।
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Tuesday, November 6, 2012

मुफ़लिसों की ग़मगुसारी से लगे हैं लोग भी.

मुखौटों के कारोबारी से लगे हैं लोग भी,
अब यहाँ पर इश्तिहारी से लगे हैं लोग भी.

इस शहर के नाम कर दें फिर कोई वीरानियाँ,
बेगार की अब पल्लेदारी से लगे हैं लोग भी.

टूटने औ' बिखरने का अब न कोई ज़िक्र छेड़ो,
मुफ़लिसों की ग़मगुसारी से लगे हैं लोग भी.

कौन देगा साथ,हम किससे यहाँ उम्मीद बांधें,
ज़ुल्म की इक थानेदारी से लगे हैं लोग भी.

भूख की इन बस्तियों में प्यास लेकर जी रहे,
झूठे वादों की ख़ुमारी से लगे हैं लोग भी.

जिन पे था दारोमदार,आज के इस दौर में,
भिखारियों की रेज़गारी से लगे हैं लोग भी.

देश के हालात पर अब कौन रोयेगा 'श्रवण',
अब यहाँ पर गैरज़िम्मेदारी से लगे हैं लोग भी.

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Sunday, November 4, 2012

ढह गया पतझड़ में हर बहार का घर...

क्यों बनाया रेत में इक प्यार का घर,
ज़माने की लहरों में बचे दो-चार घर।

अभी तूफ़ान था,अभी ये ख़ामोशी है,
ढह गया पतझड़ में हर बहार का घर।

दर्द भरे सपने हैं और लम्बी ज़िन्दगी,
कट रहा है चौखट पे इंतज़ार का घर।

सुधियों का ब्याज ही बनता है मूलधन,
इतनी मंहगाई में उजड़ता बाज़ार का घर।

घर अपना बेच दिया चुपचाप किश्तों में,
ये जिसमे रहते हैं,ये तो है उधार का घर।

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ऐसे मन कब तलक हम बहलाएँगे...

वो अगर ज़िन्दगी से चले जायेंगे,
फिर हमें वो किस तरह तड़पायेंगे।

साथ के वास्ते हो यहाँ साथ कोई,
ऐसे मन कब तलक हम बहलाएँगे।

क्यों अभी से कारवां को रोकते हो ,
कैसे ये यहाँ अपनी मंजिलें पाएंगे।

आसपास यहाँ बहरे लोग रहते हैं,
हाले-दिल किस तरह समझायेंगे।

उठ गया एक शख्स हम सा गर,
किस तरह वे महफ़िलें सजायेंगे।
(21 April, 1977)

ज़िन्दगी को हम एक करिश्मा ही कहते हैं...

ज़िन्दगी को हम एक करिश्मा ही कहते हैं,
तभी जाने क्या-क्या दुःख-दर्द सहते रहते हैं।

उठने लगा है छतों से कुछ धुँआ-धुंआ सा,
लोग भी झुलसते हुए घरों में क्यों रहते हैं।

ज़माने की हवा ने कुछ इस तरह संवारा है,
जिधर को बहा दिया, हम उधर ही बहते हैं।

बहुत पक्की हैं अपने घर की सारी दीवारें,
हम चुपचाप मगर तिल-तिल कर ढहते हैं।

जो हमें देखते हैं रोज अपने सपनों में,
पूछ रहे हमसे हम आजकल कहाँ रहते हैं।
(12 March, 1975)

दिल को बहलाने को कुछ अज़ाब ज़रूरी हैं...

ज़िन्दा रहने को नुस्ख़ा ये नायाब ज़रूरी है,
जज़्बातों की क़ीमत पे कुछ ख़्वाब ज़रूरी हैं।

केवल ख़ुशियों से जब काम नहीं चलता है,
दिल को बहलाने को कुछ अज़ाब ज़रूरी हैं।

जब तक तेरा नशा रहा,तो होश किसे था,
तूने रुख़ बदला जब से, मुई शराब ज़रूरी है।

जिसने तुमको दिए यहाँ पर ज़ख्म निराले,
उनको भी कुछ वाज़िब से जवाब ज़रूरी हैं।

ज़र्रे-ज़र्रे में दिखते हैं रोशन चेहरे सपनों से,
तेरे चेहरे की ख़ातिर, नज़रों में ताब ज़रूरी है।
(04 May,2012)